कथक का रायगढ़ घराना
कथक का रायगढ़ घराना
सृजन गाथा के दिसम्बर २००६ के अंक में डा बलदेव ने एक लेख लिखा था। यहाँ प्रस्तुत है हू बी हू लेख।
कथक को उसके मूल संस्कार और नए जीवन-संदर्भों से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है । रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने-फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू, बर्मन और रामलाल-जैसे श्रेष्ठ कथक को फलने-फूलने का यथेष्ट अवसर निला ।
रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू, बर्मन और रामलाल-जैसे श्रेष्ठ कथकाचार्य तैयार हुए । उनकी अपनी विशिष्ट शैली है और उसी शैली में एक लंबे अरसे से वे अपने शिष्यों को तैयार कर रहे हैं । शैली-विशेष के अर्थ में "कथक और रायगढ़-घराना" पर बहस की शुरुआत उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से की जा सकती है ।
प्राचीन काल में शास्त्रीय नृत्य के नाम से प्रचलित कथक की अत्यंत समृद्ध परंपरा विदेशी आक्रमणकारियों के कारण अन्य कलाओं की तरह अपनी पहचान खोने लगी थी। हिंदू राज्यों के विघटन के समय मंदिरों में आश्रय पा रहे कथकों में कतिपय दोष आ गए, फलतः उन्हें समाज-बहिष्कृत होना पड़ा। ‘विद्यावनत’ और प्रियंवद’ कहे जानेवाले इन कलाकारों को यायावरी जीवन व्यतीत करने को मजबूर होना पड़ा ।
आगे चलकर मुगल-दरबारों में इस नृत्य-विद्या को संरक्षण तो मिला, किंतु उसका धार्मिक चरित्र सुरक्षित न रह सका । पहले कथक हिंदुओं का धार्मिक अनुष्ठान होने के कारण पूर्णतया सात्विक था। अब उसे ईरानी लिबास के साथ दरबारी तौर-तरीके अपनाने पड़े । क्योंकि पैमाने और तत्कार के संतुलन में ही नर्तकों की खैरियत थी। इस तरह मंदिरों का कथक रोटी की तलाश में अपनी प्राचीन परंपरा से कट गया और मनोरंजन का साधक बन गया ।
इस समय नृत्य और भाँड़ों के तमाशे में कोई विशेएष अंतर नहीं समझा जाता था। मुगलकालीन चित्र इस तथ्य के साक्ष्य हैं। यदि इन चित्रों को मोहनजोदड़ों और हड़प्पा से उत्खनित स्त्री-नृत्य मुद्राओं के सामने रखें, जो कि निश्चित रुप से कथक की ही है, तो दोनों के बीच तारतम्य खोजना मुश्किल होगा।
संस्कृति के संक्रमणकाल में दरबार के बाहर तत्वकार पंडितों और सौभाग्यवती वनिताओं ने ही उसे मूल रुप से सुरक्षित रखने के प्रयत्न किए । कला के प्रति समर्पित स्वाभिमानी पंडितों ने विषम परिस्थियों में भी उसे धर्म से जोड़े रखा। इन्हीं पंडितों से जयपुर-निवासी भानूजी और हंडिया-निवासी ईश्वर प्रसाद मिश्र प्रमुख थे। उन्हीं के वंशधर और शिष्यों ने कला के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए राज्याश्रय को आवश्यक समझा और अनेक दरबारों में, जिनमें जयपुर और लखनऊ प्रमुख थे, आश्रय प्राप्त किया। इन्ही दो घरानों के प्रयत्नों से कथक देश-विदेश में विकसित हुआ।
जारी...
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