Wednesday, May 7, 2008

कथक का रायगढ़ घराना- भाग दो

कथक का रायगढ़ घराना- भाग दो


अंग्रेजों के शासनकाल में सांस्कृतिक संकट और अधिक गहराया, किंतु कला की अस्मिता के प्रति सचेत शासकों ने इस सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण दे कर इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें जयपुर-नरेश सवाई माधोसिंह, लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह और रायगढ़-नरेश चक्रधर सिंह का नाम प्रथम पंक्ति में है। वस्तुतः जयपुर और लखनऊ दरबार में कथक को संरक्षण तो मिला, उसमें अभिनव प्रयोग भी हुए, किंतु उसका पूर्ण विकास रायगढ़ दरबार में ही हुआ ।

प्राचीन आचार्यों की तरह राजा साहब संगीत को उसके चारों अंगों-गान, वाद्य, नृत्य तथा लास्य या भाव-प्रदर्शन समेत स्वीकार करते थे, क्योंकि वे स्वयं एक प्रतिभा संपन्न कवि, रंगकर्मी,नाट्य-लेखक, अपने युग के श्रेष्ठ तबला-वादक और जन्मजात नर्तक थे। अर्थात् वे संपूर्ण कलाकार थे और नृत्य कला में भी पूर्णता चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोगधर्मी कलाकार-मन से काव्य, अभिनय, नए परणों और तालों से कथक का पुनर्रचाव किया। प्रयोगधर्मी होते हुए भी वे कथक की ज़मीन से हटे नहीं, बल्कि मध्यकालीन कुहासे से निकालकर उसके मूल संस्कार लौटाए। राजा साहब विशुद्ध कला-पारखी थे । वे कला का संबंध आत्म-कल्याण के साथ ही जन-रुचि के परिष्कार से जोड़ते थे । उन्होंने नित-नवीन प्रयोगशील कथक को शास्त्रीय स्वरुप देना चाहा, उसे उसके मूल रुप से जोड़ते हुए युगानुरुप रचना चाहा।

इसके लिए उन्होंने दोनों घरानों के आचार्यों का सहयोग आवश्यक समझा और उन्हें दरबार में समाहित किया । उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक अपनी कला विकसित करने का उपयुक्त वातावरण भी दिया । उन्हें योग्य शिष्य दिए, जो उनकी कला को स्थायित्व दे सकें । इतना ही नहीं, उन्होंने स्वयं पर्याप्त समय दिया । तब कहीं कथक आज इतने गौरव का अधिकारी हो सका है । यह बात कितने लोगों को मालूम है।

रायगढ़-दरबार की महत्ता स्वीकार करते हुए ‘कथक-केन्द्र’, दिल्ली, मार्च 78 के वर्कशाप में पं. गौरीशंकर ने अपने आलेख में ठीक ही कहा है – "रायगढ़-दरबार में कथक नृत्य ने जो ऊँचे आयाम कायम किये थे, वे हमारे नृत्य-जगत के इतिहास में सदैव जीवित रहेंगे। हमारे देश में कथक जिस रुप में नाचा जाता है, उस पर रायगढ़ में प्रवर्तित उस विद्या की ही छाप है।" रायगढ़-घराने का औचित्य सिद्ध करने के लिए इन बातो का खुलासा जरुरी है ।
रायगढ़-घराना अस्तिव में कब आया, यह एक रोचक प्रसंग है। माधोसिंह के पूर्व राजस्थान में ‘सांवलदास’ के नाम से घराना चला आ रहा था; किंतु उनके समय में जयपुर कथक का गढ़ ही बन गया और नत्थूलाल, गिरधारी लाल, भानूलाल आदि ने अपने-अपने नाम पर घराने कायम कर लिए थे । इधर ईश्वरीप्रसाद के वंशज बिंदादिन ने, जो कि लखनऊ-दरबार में थे, अपने नाम का घराना स्थापित किया । इनकी देखा-देखी अनेक लोगों ने घराने कायम किए और इस नृत्य में मनमाने ढ़ग से प्रयोग करने लगे। इस मतभेद को दूर करने के उद्देश्य से माधोसिंह ने सन् 1895 ई। में विद्वानों की एक सभा बुलाई और वहाँ सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि ‘विशेष’ के बजाय ‘स्थान’ के नाम से घराने कायम किए जाएँ । इसी प्रकार लखनऊ और जयपुर-घराने का अस्तित्व सर्वप्रथम प्रकाश में आया ।

बाद में बनारसवालों ने भी, जो जयपुर से संबंधित थे, अपने घराने की बात कही, जो इसलिए जायज है कि उन्होंने भी स्वतंत्र शैली का निर्माण कर लिया है। बीसवीं सदी के आते-आते आपसी आदान-प्रदान के बाद भी जयपुर और लखनऊ घराने की शैलियों में प्रयोगधर्मिता के कारण पर्याप्त अंतर आ गया था। जयपुर के लोग शिव और काली के उपासक थे, उनके नृत्य में तांडव का आधिक्य था। बाद में उन्होंने महाप्रभु बल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित रास का भी प्रभाव ग्रहण किया, मीरा के भजन के साथ सूर के पदों का भी समावेश नृत्य में हुआ ।

राजस्थान के कलाकार प्रारंभ से ही अभिनय दर्पण का अनुगमन करते थे और उन्होंने अष्टनायिका-भेद को भी नृत्य में स्वीकार कर लिया था। वहाँ के तोड़े, टुकड़े, आमद और पद-संचालन की शिक्षा लयकारी मे दी जाती थी। जयपुर-घराने में भानूजी, चुन्नीलाल, जानकीप्रसाद, शिवनारायण, सुखदेवप्रसाद, चिरंजीव, जयलाल और सुंदरलाल कथक के श्रेष्ठ आचार्य हुए ।
लखनऊ-घराने का कथक नृत्य पहले विशुद्ध नटवरी नृत्य था, उसमें राधा कृष्णलास्य ही प्रधान था। वह वैष्णव महाभाव से ओत-प्रोत था, उसमें भाव-प्रदर्शन की प्रधानता थी। बाद में मुगल दरबारों में आकर, जिनका कि प्रमुख केन्द्र लखनऊ था, कथक पर मुगलिया रंग चढ़ गया और वेश-भूषा ईरानी हो गई । कथकों का सारा ध्यान नाज़ और नज़ाकत व बुलबुलों को चहकाने पर गया। जाम, पैमाने और साकी नृत्य के उपकरण बन गए । वैष्णव-पदों का स्थान ठुमरी और ग़ज़लों ने ले लिया । पारिभाषिक शब्द भी बदले। प्रस्तुत के बदले ‘अदा’ आगमन की जगह ‘साकी’ तथा कृष्ण की जगह ‘बादशाह’ ने ली। दो संस्कृतियों की टकराहट के बीच भी श्रेष्ठ आचार्यों की सर्जना-शक्ति ने कथक की आत्मा को सुरक्षित रखा।

इतना ही नहीं, उसे नई मुद्राओं, नए परणों और सात्विकता से श्रीसंपन्न कर लोकप्रिय भी बनाया । लखनऊ-घराने में ठाकुर प्रसाद, बिंदादीन, कालिका प्रसाद, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज श्रेष्ठ कथकाचार्य हुए । इस तरह कथक के विकास में करीब सौ वर्षों का समय लगा, तब भी उसका शास्त्रीय स्वरुप निर्मित न हो सका और न ही इसपर कोई महत्वपूर्ण प्रामाणिक शास्त्र ही रचा जा सका। इस अभाव की पूर्ति राजा चक्रधर सिंह ने की।

जारी...

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