Wednesday, May 7, 2008

कथक का रायगढ़ घराना- भाग चार

कथक का रायगढ़ घराना- भाग चार

राजा साहब द्वारा प्रवर्तित इसी शैली में आज भी फिरतू महाराज रायगढ़ और राउरकेला में, कल्याण खैरागढ़ में, राममूर्ति बिलासपुर में, रामलाल रायगढ़ और बैलपहाड़ में(अब भोपाल में), सीताराम और भगवान दास तथा चक्रवर्ती सिस्टर्स (जो इसी घरानें की उपज है ) विभिन्न स्थानों में नृत्य की शिक्षा दे रहे हैं। खास रायगढ़ में आज भी अनेक सुसंस्कृत परिवार की लड़कियाँ कथक में दखल रखतीं हैं। कार्तिक, कल्याण, फिरतू और रामलाल को जितने योग्य गुरुओं से शिक्षा मिली है, ऐसे बहुत कम सौभाग्यशाली शिष्य होंगे, जिन्हें यह सुयोग मिला होगा।
अकेले कार्तिकराम को करीब दर्जन-भर गुरुओं से पन्द्रह वर्षों तक नृत्य की शिक्षा मिली है। जिन्होंने राजा द्वारा आविष्कृत शैली का प्रदर्शन भारत में प्रायः समस्त बड़े शहरों में किया और मजे की बात यह कि उस विद्या की ही छाप हर कहीं दिखाई पड़ती है। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि जिस समय कार्तिक-कल्याण और कार्तिक-फिरतू की जोड़ी नृत्य-जगत् में धूम मचा रही थी, उस समय सितारादेवी, गोपीकृष्ण, बिरजू महाराज, कुष्णकुमार और रामगोपाल जैसे प्रसिद्ध कथकों की शिक्षा पूर्ण भी नहीं हो पाई थी। यह बात दूसरी है कि राजा चक्रधरसिंह की असमय मृत्यु से यह कला वहीं तक सीमित रह गई, जितनी उनके समय में थी। कारण, फिर उसे फलने-फूलने का अवसर और वातावरण नहीं मिल पाया ।
दूसरी बात यह कि ये नर्तक संगीत की राजनीति में न तो खुद ही कोई घुसपैठ कर सके और न ही सरकार के किसी सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से जुड़ सके । ये गाँव के सीधे और सच्चे लोग थे, जिन्हें ठीक तरह से प्रारंभिक शिक्षा भी नहीं मिल पाई थी, जो आज के लिए जरुरी है। ये कलाकार तिकड़मी भी नहीं थे, न भाषणबाज कि इनमें से कोई एक झंडा लेकर आगे बढ़ता और शेष उसका अनुगमन करते । फिर भी उन्होंने इस शैली को विभिन्न अंचलों में जीवित रखा है, इससे आशान्वित होना स्वाभाविक है कि फिर कभी इसके दिन फिर सकते हैं । हाँ, शासन और समाज का प्रोत्साहन इसके लिए आवश्यक है।
कार्तिक, कल्याण और फिरतू महाराज ने नृत्य-जगत् को बहुत-कुछ दिया है, लेकिन अब भी उनके पास बहुत-कुछ बचा है। अप्रकाशित ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ में जो रहस्य है, वह उनकी जबान और घुंघरुओं में अब भी कैद है, उसे रुढ़ियों को तोड़कर योग्य शिष्यों को समय रहते सौंप देना चाहिए, तभी वे रायगढ़-घराने के योग्य शिष्य कहलाने के अधिकारी हैं। यदि उन्होंने मौलिक प्रतिभा के अभाव में नया कुछ नहीं जोड़ा, तो पुराना ही सही, जो अधिक मूल्यवान है, उसे गुप्त न रखें, तभी शुभ है।
संक्षेप में रायगढ़-घराने के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब द्वारा निर्मित नए-नए बोल और चक्करदार परण हैं । उनके शिष्य अधिकांशतया उन्हीं की रचनाएँ प्रदर्शित करते है । इस उपक्रम के द्वारा गत-भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुए हैं । राजा साहब एक कल्पना-प्रवण नृत्याचार्य थे । नृत्य के साहित्य में भी वृद्धि की बड़ी गुंजाइश है । नवीनता लाने के लिए नए-नए तोड़े खूब बन सकते हैं । हाल ही में हमने जो सप्त-स्वरों की गतियाँ, अनेक मुद्राओं की गतियाँ, शिवतांडव-स्तोत्र तथा अमृता-ध्वनि, मुकृहरा, किरीट आदि के साथ पखावज और तांडव के बोल आदि जो-जो चीजें तैयार की, उन्हें हमारे दरबार के नृत्यकार ने बड़ी खूबी से साथ अदा कर दिखाया है ।

जारी..




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