Wednesday, May 7, 2008

कथक का रायगढ़ घराना- भाग पांच

कथक का रायगढ़ घराना- भाग पांच

अन्य स्थानों में यदि इसी प्रकार के नूतन-साहित्य का निर्माण होता गया और नृत्य-कुशल लोग उनकी नवीनताएँ दिखाते गए, तो वह कला भी अपनी संकुचित सीमा को तोड़कर विशाल बन जाएगी । यह ‘एकेडमी आव् म्यूजिक कान्फ्रेंस’, इलाहाबाद सन् 1936 ई. के सभापती के अभिभाषण का एक टुकड़ा है । इससे साफ जाहिर है कि राजा साहब कथक के मूल स्वरुप को सुरक्षित करते हुए भी उसमें युगानुरुप नंवीनता लाने के आग्रही थे, अर्थात् वे प्राचीनता के संरक्षक और नवीनता लाने के आग्रही, प्रयोगधर्मी नृत्याचार्य थे । नए बोल-परण, नई भाव-भंगिमाओं में ही समुचित रुप से अभिव्यक्त हो सकते हैं । यहां के बोल ध्वन्यात्मक और चित्रात्मक हैं, जिनमें काव्यानंद की अनुभूति निहित है । मात्र वे तत्कार के बोल नहीं, वे बोल उतनी स्पष्टता और निखार के साथ तबले या मृदंग पर निकाले जा सकते हैं, जितने घुंघरुओं से । उदाहरण के लिए राजा साहब द्वारा निर्मित किलकिला-परण ही लीजिएः-
देत्त तेटे धेधे तिट तड़ाग
धागे दिगंन धागे दिगंन धेतिटत गदिगन
त्रकत तान त्रकत तान
धरन मीन धेत धड़न्न धा
ताधा दिं दिं किड़कंत दिडंग धा
तिटकत गदिगन धा ता धा
गदिगन धा गदिगन धा
इसमें प्रथम पंक्ति में तालाब का फैलाव, दूसरी में किलकिला पक्षी द्वारा जल को बार-बार ताकने, तीसरी में ऊपर-नीचे होकर लक्ष्य साधने, चौथी-पाँचवीं में मछली को पकड़ने, फिर छठवें और सातवें चरणों में पंख फड़फड़ा कर पानी से ऊपर उठकर आनंद में गद् गद् होकर नीड़ की ओर उड़ने का ध्यन्यात्मक चित्र है । इस परण में आप काव्य का आनंद भी उठा सकते हैं और इसे अनेक मुद्राओं, घुंघरुओ में या चाहे तो मृदंग या तबले में या इनके समवेत में व्यक्त कर सकते हैं ।
इसी प्रकार दल-बादल, कड़क बिजली, दुर्गाकाली-लास्य, अमृताध्वनि, शुभ्रभातु आदि-आदि सैकड़ों परण रचे गऐ हैं, जो कि अप्रकाशिक ग्रंथ ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ में संकलित है । वास्तव में नृत्य में घुंघरु और तबले का काम बराबर का होता है । यहाँ के नर्तक तबला या मृदंग के कठिन बोलों को भी घुंघरुओं से बड़ी सुगमता से निकालने में प्रवीण हैं । उस समय यह कला स्वयं पं।जयलाल और अच्छन महाराज में न थी। यह राजा साहब की विशेष तालीम का परिणाम था। उस समय यहाँ के कलाकारों में तबले और घुंघरुओं की लड़ंत का काम देखते ही बनता था।
राजा साहब को तबला बजाने में महारत हासिल थी। कार्तिकराम जैसे बेजोड़ कथक की संगति वे आसानी से कर लेते थे, जबकि तबला के बड़-बड़े ‘उस्ताद’ भी उनके सामने आने में झिझकते थे। राजा साहब तबला के नए बोलों के प्रणेता तो थे ही, इसके अलावा उस्तादों से प्राप्त दुर्लभ बोलों का संग्रह भी करते थे। उनका प्रसिद्ध अप्रकाशित ग्रंथ ‘तालतोयनिधि’ संगीत-संसार की अमूल्य निधि है। इसमें दो से तीन सौ अस्सी मात्राओं तक के तालों का चक्र-सहित वर्णन है। रायगढ़-दरबार के बोल इतने ध्वन्यात्मक हैं कि पढ़ने के साथ ही अर्थ खुलने लगते हैं और भाव-प्रदर्शन के साथ ही रस-निष्पत्ति होने लगती है। भावों की प्रधानता और अभिनेयता इसके सहायक तत्व हैं । इसीलिए यहाँ अभिनय पर विशेष बल दिया जाता है।
रंगकर्मी राजा चक्रधरसिंह भावाभिनय को नृत्य के प्राण समझते थे। उनके शब्दों में- "नृत्य का अर्थ यदि अंग-विक्षेप ही रहे, तो वह निश्चय ही अपना महत्व खो बैठेगा । नृत्य के अंग-संचालन में यदि हृदयगत भावों का अभिनय नहीं हो रहा है, तो वह एक मशीन का ही कार्य समझा जाएगा।"
रायगढ़-घराने के कथक में लखनऊ और जयपुर की मिश्र शैली प्रयुक्त होती है। यहाँ जयपुर-जैसी तैयारी है, तो लखनऊ-जैसा भाव प्रदर्शन और खूबसूरती । यहाँ का ठाठ न तो जयपुर-घराने-सा बड़ा है, न लखनऊ-सा छोटा। यहाँ हवा में लहराते केतु के प्रतीक त्रिपटाक-हस्त का अधिक महत्व है। इसीलिए राजा साहब इसे ठाठ की जगह त्रिपटाक-हस्त कहना अधिक पसंद करते थे। उस समय जयपुर में विलंबित का काम अधिक होता था। लखनऊ में कम, लेकिन अतिविलंबित का काम यही से प्रारंभ हुआ । यहाँ की अतिविलंबित लय उस समय चौसठ मात्राओं तक की होती थी ।
संकीर्ण, खंड, मिश्र, तिस्त्र, चतस्त्र पाँचों जतियों की लय का प्रयोग भी यहाँ की खासियत है। चक्करदार परण यहीं की उपज है। यहाँ के नृत्य में तांडव की विशालता और सात्विकता, लास्य की खूबसूरती और भावों की प्रधानता तथा लोक-नृत्य की गतिशीलता एक साथ पाई जाती है। रायगढ़-घराने के कथक की सबसे बड़ी विशेएषता यह है कि वह शास्त्र-सम्मत है। उसके बोल-परण, उनका स्वरुप, धर्म, देश और कालानुसार विनिर्मत है। और, इस शास्त्र का अप्रतिम और अप्रकाशित ग्रंथ है ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ । इस प्रकार रायगढ़-घराने का कथक अभिनय, समस्त रसों, भावों अनुभावों से युक्त मुद्राओं से परिपूर्ण है।
पुनश्च रायगढ़-घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब द्वारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार चरण है, जो ‘नर्चन-सर्वस्व’, ‘तालतोय निधि’, ‘रागरत्न मंजूषा’, ‘मुरजपर्ण पुष्पकार’ और ‘तालबल पुष्पकार’ में संकलित है; उनके शिष्य अधिकांशतया उन्हीं की रचनाएं प्रदर्शित करते हैं, इस उपक्रम के द्वारा गत-भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुए, यहाँ ‘कड़क बिजली, दल बादल, किलकिलापरण’ जैसे सैकड़ों बोल, प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पक्षी आदि के रंगध्वनियों पर आधारित हैं। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जाये तो ये मूर्त हो उठते हैं।
इसी प्रकार यहाँ से 283 मात्राओं तक की तालों की रचना हुई थी जो ऐतिहासिक घटना है। अभिजात्य संस्कारों से जुड़े यहाँ के कथक में लोकनृत्य का लालित्य उद्दाम आवेग और जीवन का निश्छल स्पंदन है। ‘राजा चक्रधरसिंह’ के नाम पर मध्यप्रदेश शासन ने चक्रधर नृत्य केन्द्र (भोपाल) की स्थापना कर एक प्रशंसनीय कार्य तो किया ही है । नवगठित राज्य सरकार ने भी राजा चक्रधर के नाम से संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार प्रारंभ कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी है । इसके पूर्व से ही राज्य की प्रमुख सांस्कृतिक संगठन सृजन-सम्मान द्वारा भी उनके नाम पर प्रतिवर्ष एक सम्मान दिया जाता रहा है । इससे ‘रायगढ़-घराने’ पर एक स्पष्ट मुहर लग जाती है ।

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