कथक का रायगढ़ घराना- भाग तीन
वस्तुतः कथक का देश में आज जो स्वरुप है, उसका विकास रायगढ़-दरबार में ही हुआ । राजा चक्रधरसिंह ने यही ‘नर्तन-सर्वस्व’, ‘ताल-तोयनिधि’ और 'रागरत्न-मंजूषा’ का निर्माण कर कथक को शास्त्र-सम्मत रुप प्रदान किया। राजा साहब के शासन-काल में रायगढ़ कथक का प्रमुख केन्द्र था । यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही रायगढ़ में प्रसिद्ध कथकों और संगीतज्ञों का आना-जाना शुरु हो गया था ।
यहाँ चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, सीताराम, चिरंजीलाल, झंड़े खां और शिवनारायण आदि कथकगुरु तो राजा चक्रधरसिंह के बचपन में ही आ गए थे। इतना ही नहीं, जमाल खां, सादिक हुसैन (तबला), चाँद खां (सारंगी) करामतुल्ला, कादरबख्स, अनोखेलाल, प्यारेलाल, प्यारे साहब (गायन), ठाकुरदास महंत, पर्वतदास (पखावज) आदि संगीतज्ञ भी राजा भूपदेवसिंह के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। कहा जाता है कि शिवनारायण के नृत्य से राजा चक्रधरसिंह अत्यधिक प्रभावित हुए थे। और शासन की बागडोर सम्हालते ही उन्होंने अपना सारा ध्यान कथक और संगीत के विकास में केन्द्रित किया।
उन्होंने पं. जयलाल, अच्छन महाराज, शिवलाल, सुखदेवप्रसाद, सुंदरलाल, चिरंजीलाल, हनुमान प्रसाद, झंडे खां, लच्छू महाराज, शंभू महाराज, सीताराम, ज्योतिराम, मोतीराम आदि श्रेष्ठ आचार्यों को नियुक्त कर अपने दरबार के बाल-कलाकारों को, जिनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल प्रमुख थे, नृत्य की शिक्षा दिलाई। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने हमजोली अनुजराम और मुकुतराम को भी पुनः नृत्य की शिक्षा दिलाई। अंत मे उन्होंने स्वयं कार्तिक और पं. जयलाल के साथ रामलाल को नृत्य की शिक्षा दी। गुणी राजा के दरबार में उपयुक्त प्रसिद्ध नृत्याचार्यों के अतिरिक्त इनायत खां (सितार), अहमदजान थिरकवा, मुनीर खां, नन्हेबाबू, हाजी मुहम्मद, अलाउद्दीन खां, कादरबख्श, कंठे महाराज, कवि भूषण और ठा. लक्ष्मणसिंह आदि प्रसिद्ध संगीतज्ञ उनके दरबार के रत्न थे। नत्थूलाल, मुनीर खां और चुन्नीलाल तो अंत तक दरबार में ही रहे और निधन भी उनका यहीं हुआ।
कहा जाता है, पंडित ओंकारनाथ और विष्णुदिगंबर-जैसे युग-प्रवर्तक संगीतज्ञों की कृपा राजा साहब पर थी और उनके निमंत्रण पर वे दोनों ही आते थे। प्रश्न यह उठता है कि बीसवीं सदी के इन महान् कलाकारों का इस पिछड़े इलाके में आने के पीछे कौन-सा रहस्य था। कारण,य ह रियासत न तो श्रीसंपन्नता के लिए ही प्रसिद्ध थी और न यहाँ आने-जाने की पर्याप्त सुविधा थी। विचार करने पर ज्ञात होगा कि राजा चक्रधरसिंह एक महान् गुणी राजा और जन्मजात कलाकार थे। उनका दरबार संगीत और साहित्य के लिए अत्यंत उर्वर था। राजा साहब के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करना यानी सर्टीफाइड हो जाना था ।
देश के किसी भी हिस्से मे होनेवाला संगीत-सम्मेलन यहाँ के कलाकारों के बिना सूना लगता था। इन्ही बातों से रायगढ़-दरबार के महत्व की कल्पना की जा सकती है।
दूसरा कारण जो अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है, वह यह कि रायगढ़-दरबार में नृत्य-विषयक ‘नर्तन रहस्यम्’ नाम का एक प्राचीन ग्रंथ था, जिसका प्रणेता पं. विशाखदत्त नाम का कोई विद्वान था । हो सकता है, देश के पुराने नृत्याचार्यों को उसका पता रहा हो। कारण पं. विशाखदत्त ने मुगल-दरबार से प्राणों के रक्षार्थ भागकर इस बीहड़ वन-प्रदेश में शरण ली थी। यहीं दियागढ़ नामक रियासत में उसने दो राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी थी। राजकुमारियों का मीलूगढ़ में विवाह होने पर पं. विशाखदत्त को भी उनके साथ वहाँ जाना पड़ा। वहीं उन्होंने ‘नर्तन रहस्यम्’ का निर्माण किया । मीलूगढ़ से युद्ध के दौरान यह ग्रंथ रायगढ़-नरेशों के हाथ लगा। ‘नर्तन-रहस्यम्’ के आधार पर राजा चक्रधर ने ‘नर्तन-सर्वस्वम्’की रचना की। ‘नर्तन-रहस्यम्’ अब अनुपलब्ध है। ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ की भूमिका में ‘नर्तन-रहस्यम्’ की कथा का स्पष्ट उल्लेख है।
रायगढ़-दरबार की सांस्कृतिक चेतना को और उजागर करने के लिए यहाँ दो बातों को और स्पष्ट कर देना आवश्यक है। प्रथम तो राजा चक्रधरसिंह को संगीत के मूल संस्कार विरासत-बतौर मिले थे। उनके पितामह घनश्यामसिंह, पिता श्री भूपदेवसिंह, अग्रज नटवरसिंह आदि शासक संगीत के संरक्षक ही नहीं, बल्कि मर्मज्ञ भी थे। राजा चक्रधरसिंह के छोटे चाचा पीलूलाल ने तबले की शिक्षा बनारस जाकर ली थी। उनके मझले चाचा लाल नारायणसिंह पखावज के श्रेष्ठ वादक थे।
संगीत की वास्तविक प्रेरणा राजा साहब को उन्हीं से मिली थी। ये शासक गोड़ जाति के हैं। गोड़ मध्यप्रदेश की आदिम जन-जाति है। नाच और गान इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। संगीत का संबंध उनके धार्मिक अनुष्ठानों से ही नहीं, बल्कि सीधे रक्त से है । उनके जीवन के प्रत्येक स्पंदनों में नृत्य की लय और मृदंग के छापों की अनुगूंज है। हो सकता है, इन गोड़ राजाओं ने अपनी स्वाभाविक प्रवृति का परिष्कार अंचल के लोग-नर्तकों को शास्त्रीय नृत्य में दीक्षित कर किया हो । एक बात और, राजा चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ था। उनका जन्म-दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। एक प्रकार से वह धार्मिक उस्सव राजकीय उत्सव के रुप में परिणत हो गया था। इस उत्सव में देश के प्रख्यात कलाकारों के अतिरिक्त स्थानीय कलाकारों को भी प्रोत्साहित किया जाता था। उसी समय कर्मा और नाचा से बाल-कलाकारों का चुनाव कर, उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया जाता था। एक फिरतू को छोड़कर कथक के सभी नृत्याचार्य, जिनमें कार्तिक, कल्याण और बर्मन प्रमुख हैं, छत्तीसगढ़ी नाचा से आए थे। अतः अभिजात्य संस्कारों से जुड़े कथक में लोक-नृत्य का लालित्य, उद्दाम आवेग और जीवन का निश्च्छल स्पंदन दीख पड़े तो क्या आश्चर्य ? ऐसा मेल शायद ही कहीं हुआ हो ।
राजा भूपदेवसिंह के समय मोहरसाय, धुरमीनदास और सहसराम को पहले-पहल कथक की शिक्षा देने का उपक्रम हुआ । पं। चुन्नीलाल, शिवनारायण और झंडे खां इनके गुरु नियुक्त हुए । कार्तिकराम के चाचा माखनलाल और अनुज के पिता जगदेव माली उस समय इस क्षेत्र के प्रसिद्ध लोक-नर्तक थे। राजा भूपदेवसिंह की इन पर विशेष कृपा थी। इन्होंने भी कार्तिकराम और अनुजराम के लिए ज़मीन तैयार की। राजा नटवसिंह के समय अनुजराम, कुकुतराम और कार्तिक आदि कलाकारों को पं. शिवनारायण, पं. जयलाल, सीताराम और झंड़े खां जैसे योग्य नृत्याचार्यों ने कथक की शिक्षा दी। राजा चक्रधरसिंह उस समय ‘नन्हे महाराज’ के नाम से पुकारे जाते थे। वे बचपन से ही संगीत और नृत्य के प्रति अनुरक्त थे। उन्होंने लालनारायणसिंह, ठा. लक्ष्मणसिंह और मुनीर खां से तबला की, पं. शिवनारायण और सीताराम से नृत्य की तथा नन्हेबाबू से गायन की शिक्षा ली ।
साहित्य के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी उनके पथ-प्रदर्शक रहे। इसके अतिरिक्त संस्कृत के विद्वान् श्री भगवान् पांडे, पं. सदाशिव और अनेक साहित्यिक उनके साथ रहे। राजा नटवरसिंह के देहांत के बाद राजा चक्रधरसिंह शासक हुए और शीघ्र ही रायगढ़ संगीत, नृत्य और काव्य का त्रिवेणी-संगम हो गया। उनके शासन काल में देश के महान कलाकारों का आगमन हुआ । उन्होंने संगीत की अन्य विधाओं की अपेक्षा कथक के विकास में ही अधिक जोर दिया। उन्होंने कार्तक, अनुजराम, कल्याण, फिरतू और बर्मन को उच्चकोटि की शिक्षा दिलाई।
पं।जयलाल इनके प्रमुख गुरु थे। इसके अलावा चिरंजीलाल, सोहनलाल, मोहनलाल आदि भी उनके आचार्य थे। नृत्य शिक्षा के समय राजा चक्रधरसिंह की मौलिक प्रतिभा के कलात्मक हस्तक्षेप ने पं. जयलाल को रुष्ट किया और वे बंबई चले गए । इस बीच राजा साहब ने अच्छन महाराज को रामपुर-दरबार से बुलवा लिया। फिर भी वे पं. जयलाल को नहीं भूल सके और बुलावा भेजा । चूंकि पं. जयलाल के पिता और बंधु-बांधव यहाँ रह चुके थे और उन्हें रायगढ़ से बेहद लगाव था। अस्तु, वे राजा साहब के आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सके । इस बीच पं. सुंदरलाल, हनुमानप्रसाद, पं. सुखदेव भी आ गये थे । सबसे बाद में शंभू महाराज और लच्छू महाराज आए । इस तरह रायगढ़ कथक का गढ़ ही बन गया । तभी तो पं. सुखदेव ने अपने पुत्र श्री चौबे को नृत्य की शिक्षा यहीं दिलाई । उस समय यहाँ जयकुमारी, हजारीलाल और गौरीशंकर आदि भी नृत्य का अभ्यास कर रहे थे।
पं। जयलाल और अच्छन महाराज के कारण अब दरबार में लखनऊ और जयपुर-घराने की खुली टकराहट होने लगी। वैसे, इसका सूत्रपात तो सन् 1895 ई. में ही हो गया था। पहले तो दोनों घराने के गुरुओं ने स्वस्थ स्पर्धा की भावना से अपनी-अपनी शैलियों में शिक्षा देना प्रारंभ किया । बाद में जब शिष्यों में दोनों शैलियों का सम्मिश्रण होने लगा, तो दोनों आचार्यों को अपने घराने की शैलियों की शुद्धता बनाए रखने की चिंता हुई । दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे, एक-दूसरे की त्रुटियाँ निकालने में कटुताएं बढ़ीं और सन् 1936 ईं में एक दिन उग्र विवाद खड़ा हो गया । राजा साहब ने दोनों घरानों की श्रेष्ठता स्वीकार कर अपनी-अपनी शैलियों में ही शिष्यों को निष्णात करने का अनुरोध किया, तब जाकर यह विवाद समाप्त हुआ । किंतु इसके साथ ही रायगढ़-घराने का मौन प्रश्न खड़ा हो गया । आज तो उसके अस्तित्व का प्रश्न है। रायगढ़-दरबार के शिष्यों को दोनों परानों की शिक्षा लेनी पड़ती थी, ऊपर से राजा साहब की रचनाओं की भी तालीम दी जाती ।
राजा साहब प्रमुख आचार्य को अपने द्वारा आविष्कृत नृत्यांगों को प्रेक्टिकल-हेतु सभा-मध्य आमंत्रण देते, फिर स्वयं उसे करके दिखाते । इतना ही नहीं, गुरुओं को भी अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रकाशन का अवसर देते, तब भला शिष्यों में किस घराने की शुद्धता बनी रह सकती थी । धीरे-धीरे राजा साहब द्वारा आविष्कृत शैली ही यहाँ प्रमुख हो गई और दोनों घरानों का प्रभाव कम होता गया । एक बात यहाँ साफ हो जाए, वह यह कि अब भी बँधे-बँधाए तौर पर यहाँ के नर्तक दोनों शैलियों में नाचना चाहें, तो अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। परन्तु उसमे जीवन की स्वाभाविक गतिशीलता नहीं रहने पाएगी। अतः दोनों शैलियो का सम्मिश्रण, जो इस घरानें की प्रमुख विशेषता हैं, अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता ।
यह महज एक संजोग ही था कि पं। जयलाल और अच्छन महाराज संगीत, नृत्य और काव्य के इस उर्वर रसमय वातावरण में एक साथ अनेक वर्षों तक रहे। ऐसे में उनकी असाधारण कलाकारिता और राजा साहब की विलक्षण कारयित्री प्रतिभा प्रस्फुटित होकर एक-दूसरे को प्रभावित करती हो और उनसे एक निराली शैली का जन्म हुआ हो, तो क्या आश्चर्य ? इस शैली में जयपुर और लखनऊ-घरानें का सम्मिश्रण, राजा साहब की रचनाओं, मुद्राओं और अभिनय-पद्धति का आधिक्य तथा लोक-नृत्य का उद्दाम आवेग, जीवंतता और लालित्य एक साथ दिख पड़ें, तो यह उसकी खासियत है ।
इसी शैली का अनुसरण प्रायः सभी जगह किया गया। इसी निराली शैली का अनुसरण प्रायः सभी जगह किया गया । इसी निराली शैली में कार्तिक के पुत्र रामलाल को पं। जयलाल, राजा चक्रधर सिंह और कार्तिक ने निष्णात किया है। उस समय रायगढ़ दरबार के कलाकारों में जितनी तैयारी ती, उतनी ही भाव-प्रदर्शन की क्षमता, उतनी ही मौलिकता तथा लालित्य, यह पहचान अन्य जगह के कलाकारों में उस समय दुर्लभ थी, अब दूसरी बात है।
जारी..
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