Saturday, May 17, 2008

क्या है कत्थक

क्या है कत्थक
कत्थक नृत्य उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब प्रांतों में प्रचलित है। कत्थक यहाँ का शास्र्तीय नृत्य है। कत्थक संस्कृत की दशम गण की 'कथ' धातु से बना है। इसकी व्यत्पति इस प्रकार बताई गयी है-
'कथयति यःसः कत्थक' अर्थात जो कथन करता है वही कत्थक है। कत्थक शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महाभारत में द्रिस्ती गोचर होता है। संगीत रत्नाकर के सप्तम नर्तनाध्याय में भी 'कत्थक' शब्द निम्नलिखित प्रकार प्राप्त होता है-
कथक बंदिने चान्ये विधावंतः प्रियावादाह,
pरशानम कुशल चान्याँ चतुरः सर्व्मातुशु।
बाणचरितसार की भूमिका में कत्थक का arth स्टोरी टेलर दिया है।
पर्थी शब्दकोष में इसे उपदेशक के arth में प्रयोग किया गया है। अतः हम यह समझ सकते हैं कि कत्थक वह मध्यम है जो व्यक्ति विशेष द्वारा लोकोपदेश के लिए अभिनय के मध्यम से कथा की प्रस्तुति करे।

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Wednesday, May 7, 2008

कथक का रायगढ़ घराना- भाग पांच

कथक का रायगढ़ घराना- भाग पांच

अन्य स्थानों में यदि इसी प्रकार के नूतन-साहित्य का निर्माण होता गया और नृत्य-कुशल लोग उनकी नवीनताएँ दिखाते गए, तो वह कला भी अपनी संकुचित सीमा को तोड़कर विशाल बन जाएगी । यह ‘एकेडमी आव् म्यूजिक कान्फ्रेंस’, इलाहाबाद सन् 1936 ई. के सभापती के अभिभाषण का एक टुकड़ा है । इससे साफ जाहिर है कि राजा साहब कथक के मूल स्वरुप को सुरक्षित करते हुए भी उसमें युगानुरुप नंवीनता लाने के आग्रही थे, अर्थात् वे प्राचीनता के संरक्षक और नवीनता लाने के आग्रही, प्रयोगधर्मी नृत्याचार्य थे । नए बोल-परण, नई भाव-भंगिमाओं में ही समुचित रुप से अभिव्यक्त हो सकते हैं । यहां के बोल ध्वन्यात्मक और चित्रात्मक हैं, जिनमें काव्यानंद की अनुभूति निहित है । मात्र वे तत्कार के बोल नहीं, वे बोल उतनी स्पष्टता और निखार के साथ तबले या मृदंग पर निकाले जा सकते हैं, जितने घुंघरुओं से । उदाहरण के लिए राजा साहब द्वारा निर्मित किलकिला-परण ही लीजिएः-
देत्त तेटे धेधे तिट तड़ाग
धागे दिगंन धागे दिगंन धेतिटत गदिगन
त्रकत तान त्रकत तान
धरन मीन धेत धड़न्न धा
ताधा दिं दिं किड़कंत दिडंग धा
तिटकत गदिगन धा ता धा
गदिगन धा गदिगन धा
इसमें प्रथम पंक्ति में तालाब का फैलाव, दूसरी में किलकिला पक्षी द्वारा जल को बार-बार ताकने, तीसरी में ऊपर-नीचे होकर लक्ष्य साधने, चौथी-पाँचवीं में मछली को पकड़ने, फिर छठवें और सातवें चरणों में पंख फड़फड़ा कर पानी से ऊपर उठकर आनंद में गद् गद् होकर नीड़ की ओर उड़ने का ध्यन्यात्मक चित्र है । इस परण में आप काव्य का आनंद भी उठा सकते हैं और इसे अनेक मुद्राओं, घुंघरुओ में या चाहे तो मृदंग या तबले में या इनके समवेत में व्यक्त कर सकते हैं ।
इसी प्रकार दल-बादल, कड़क बिजली, दुर्गाकाली-लास्य, अमृताध्वनि, शुभ्रभातु आदि-आदि सैकड़ों परण रचे गऐ हैं, जो कि अप्रकाशिक ग्रंथ ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ में संकलित है । वास्तव में नृत्य में घुंघरु और तबले का काम बराबर का होता है । यहाँ के नर्तक तबला या मृदंग के कठिन बोलों को भी घुंघरुओं से बड़ी सुगमता से निकालने में प्रवीण हैं । उस समय यह कला स्वयं पं।जयलाल और अच्छन महाराज में न थी। यह राजा साहब की विशेष तालीम का परिणाम था। उस समय यहाँ के कलाकारों में तबले और घुंघरुओं की लड़ंत का काम देखते ही बनता था।
राजा साहब को तबला बजाने में महारत हासिल थी। कार्तिकराम जैसे बेजोड़ कथक की संगति वे आसानी से कर लेते थे, जबकि तबला के बड़-बड़े ‘उस्ताद’ भी उनके सामने आने में झिझकते थे। राजा साहब तबला के नए बोलों के प्रणेता तो थे ही, इसके अलावा उस्तादों से प्राप्त दुर्लभ बोलों का संग्रह भी करते थे। उनका प्रसिद्ध अप्रकाशित ग्रंथ ‘तालतोयनिधि’ संगीत-संसार की अमूल्य निधि है। इसमें दो से तीन सौ अस्सी मात्राओं तक के तालों का चक्र-सहित वर्णन है। रायगढ़-दरबार के बोल इतने ध्वन्यात्मक हैं कि पढ़ने के साथ ही अर्थ खुलने लगते हैं और भाव-प्रदर्शन के साथ ही रस-निष्पत्ति होने लगती है। भावों की प्रधानता और अभिनेयता इसके सहायक तत्व हैं । इसीलिए यहाँ अभिनय पर विशेष बल दिया जाता है।
रंगकर्मी राजा चक्रधरसिंह भावाभिनय को नृत्य के प्राण समझते थे। उनके शब्दों में- "नृत्य का अर्थ यदि अंग-विक्षेप ही रहे, तो वह निश्चय ही अपना महत्व खो बैठेगा । नृत्य के अंग-संचालन में यदि हृदयगत भावों का अभिनय नहीं हो रहा है, तो वह एक मशीन का ही कार्य समझा जाएगा।"
रायगढ़-घराने के कथक में लखनऊ और जयपुर की मिश्र शैली प्रयुक्त होती है। यहाँ जयपुर-जैसी तैयारी है, तो लखनऊ-जैसा भाव प्रदर्शन और खूबसूरती । यहाँ का ठाठ न तो जयपुर-घराने-सा बड़ा है, न लखनऊ-सा छोटा। यहाँ हवा में लहराते केतु के प्रतीक त्रिपटाक-हस्त का अधिक महत्व है। इसीलिए राजा साहब इसे ठाठ की जगह त्रिपटाक-हस्त कहना अधिक पसंद करते थे। उस समय जयपुर में विलंबित का काम अधिक होता था। लखनऊ में कम, लेकिन अतिविलंबित का काम यही से प्रारंभ हुआ । यहाँ की अतिविलंबित लय उस समय चौसठ मात्राओं तक की होती थी ।
संकीर्ण, खंड, मिश्र, तिस्त्र, चतस्त्र पाँचों जतियों की लय का प्रयोग भी यहाँ की खासियत है। चक्करदार परण यहीं की उपज है। यहाँ के नृत्य में तांडव की विशालता और सात्विकता, लास्य की खूबसूरती और भावों की प्रधानता तथा लोक-नृत्य की गतिशीलता एक साथ पाई जाती है। रायगढ़-घराने के कथक की सबसे बड़ी विशेएषता यह है कि वह शास्त्र-सम्मत है। उसके बोल-परण, उनका स्वरुप, धर्म, देश और कालानुसार विनिर्मत है। और, इस शास्त्र का अप्रतिम और अप्रकाशित ग्रंथ है ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ । इस प्रकार रायगढ़-घराने का कथक अभिनय, समस्त रसों, भावों अनुभावों से युक्त मुद्राओं से परिपूर्ण है।
पुनश्च रायगढ़-घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब द्वारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार चरण है, जो ‘नर्चन-सर्वस्व’, ‘तालतोय निधि’, ‘रागरत्न मंजूषा’, ‘मुरजपर्ण पुष्पकार’ और ‘तालबल पुष्पकार’ में संकलित है; उनके शिष्य अधिकांशतया उन्हीं की रचनाएं प्रदर्शित करते हैं, इस उपक्रम के द्वारा गत-भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुए, यहाँ ‘कड़क बिजली, दल बादल, किलकिलापरण’ जैसे सैकड़ों बोल, प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पक्षी आदि के रंगध्वनियों पर आधारित हैं। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जाये तो ये मूर्त हो उठते हैं।
इसी प्रकार यहाँ से 283 मात्राओं तक की तालों की रचना हुई थी जो ऐतिहासिक घटना है। अभिजात्य संस्कारों से जुड़े यहाँ के कथक में लोकनृत्य का लालित्य उद्दाम आवेग और जीवन का निश्छल स्पंदन है। ‘राजा चक्रधरसिंह’ के नाम पर मध्यप्रदेश शासन ने चक्रधर नृत्य केन्द्र (भोपाल) की स्थापना कर एक प्रशंसनीय कार्य तो किया ही है । नवगठित राज्य सरकार ने भी राजा चक्रधर के नाम से संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार प्रारंभ कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी है । इसके पूर्व से ही राज्य की प्रमुख सांस्कृतिक संगठन सृजन-सम्मान द्वारा भी उनके नाम पर प्रतिवर्ष एक सम्मान दिया जाता रहा है । इससे ‘रायगढ़-घराने’ पर एक स्पष्ट मुहर लग जाती है ।

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कथक का रायगढ़ घराना- भाग चार

कथक का रायगढ़ घराना- भाग चार

राजा साहब द्वारा प्रवर्तित इसी शैली में आज भी फिरतू महाराज रायगढ़ और राउरकेला में, कल्याण खैरागढ़ में, राममूर्ति बिलासपुर में, रामलाल रायगढ़ और बैलपहाड़ में(अब भोपाल में), सीताराम और भगवान दास तथा चक्रवर्ती सिस्टर्स (जो इसी घरानें की उपज है ) विभिन्न स्थानों में नृत्य की शिक्षा दे रहे हैं। खास रायगढ़ में आज भी अनेक सुसंस्कृत परिवार की लड़कियाँ कथक में दखल रखतीं हैं। कार्तिक, कल्याण, फिरतू और रामलाल को जितने योग्य गुरुओं से शिक्षा मिली है, ऐसे बहुत कम सौभाग्यशाली शिष्य होंगे, जिन्हें यह सुयोग मिला होगा।
अकेले कार्तिकराम को करीब दर्जन-भर गुरुओं से पन्द्रह वर्षों तक नृत्य की शिक्षा मिली है। जिन्होंने राजा द्वारा आविष्कृत शैली का प्रदर्शन भारत में प्रायः समस्त बड़े शहरों में किया और मजे की बात यह कि उस विद्या की ही छाप हर कहीं दिखाई पड़ती है। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि जिस समय कार्तिक-कल्याण और कार्तिक-फिरतू की जोड़ी नृत्य-जगत् में धूम मचा रही थी, उस समय सितारादेवी, गोपीकृष्ण, बिरजू महाराज, कुष्णकुमार और रामगोपाल जैसे प्रसिद्ध कथकों की शिक्षा पूर्ण भी नहीं हो पाई थी। यह बात दूसरी है कि राजा चक्रधरसिंह की असमय मृत्यु से यह कला वहीं तक सीमित रह गई, जितनी उनके समय में थी। कारण, फिर उसे फलने-फूलने का अवसर और वातावरण नहीं मिल पाया ।
दूसरी बात यह कि ये नर्तक संगीत की राजनीति में न तो खुद ही कोई घुसपैठ कर सके और न ही सरकार के किसी सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से जुड़ सके । ये गाँव के सीधे और सच्चे लोग थे, जिन्हें ठीक तरह से प्रारंभिक शिक्षा भी नहीं मिल पाई थी, जो आज के लिए जरुरी है। ये कलाकार तिकड़मी भी नहीं थे, न भाषणबाज कि इनमें से कोई एक झंडा लेकर आगे बढ़ता और शेष उसका अनुगमन करते । फिर भी उन्होंने इस शैली को विभिन्न अंचलों में जीवित रखा है, इससे आशान्वित होना स्वाभाविक है कि फिर कभी इसके दिन फिर सकते हैं । हाँ, शासन और समाज का प्रोत्साहन इसके लिए आवश्यक है।
कार्तिक, कल्याण और फिरतू महाराज ने नृत्य-जगत् को बहुत-कुछ दिया है, लेकिन अब भी उनके पास बहुत-कुछ बचा है। अप्रकाशित ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ में जो रहस्य है, वह उनकी जबान और घुंघरुओं में अब भी कैद है, उसे रुढ़ियों को तोड़कर योग्य शिष्यों को समय रहते सौंप देना चाहिए, तभी वे रायगढ़-घराने के योग्य शिष्य कहलाने के अधिकारी हैं। यदि उन्होंने मौलिक प्रतिभा के अभाव में नया कुछ नहीं जोड़ा, तो पुराना ही सही, जो अधिक मूल्यवान है, उसे गुप्त न रखें, तभी शुभ है।
संक्षेप में रायगढ़-घराने के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब द्वारा निर्मित नए-नए बोल और चक्करदार परण हैं । उनके शिष्य अधिकांशतया उन्हीं की रचनाएँ प्रदर्शित करते है । इस उपक्रम के द्वारा गत-भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुए हैं । राजा साहब एक कल्पना-प्रवण नृत्याचार्य थे । नृत्य के साहित्य में भी वृद्धि की बड़ी गुंजाइश है । नवीनता लाने के लिए नए-नए तोड़े खूब बन सकते हैं । हाल ही में हमने जो सप्त-स्वरों की गतियाँ, अनेक मुद्राओं की गतियाँ, शिवतांडव-स्तोत्र तथा अमृता-ध्वनि, मुकृहरा, किरीट आदि के साथ पखावज और तांडव के बोल आदि जो-जो चीजें तैयार की, उन्हें हमारे दरबार के नृत्यकार ने बड़ी खूबी से साथ अदा कर दिखाया है ।

जारी..




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कथक का रायगढ़ घराना- भाग तीन

कथक का रायगढ़ घराना- भाग तीन

वस्तुतः कथक का देश में आज जो स्वरुप है, उसका विकास रायगढ़-दरबार में ही हुआ । राजा चक्रधरसिंह ने यही ‘नर्तन-सर्वस्व’, ‘ताल-तोयनिधि’ और 'रागरत्न-मंजूषा’ का निर्माण कर कथक को शास्त्र-सम्मत रुप प्रदान किया। राजा साहब के शासन-काल में रायगढ़ कथक का प्रमुख केन्द्र था । यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही रायगढ़ में प्रसिद्ध कथकों और संगीतज्ञों का आना-जाना शुरु हो गया था ।
यहाँ चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, सीताराम, चिरंजीलाल, झंड़े खां और शिवनारायण आदि कथकगुरु तो राजा चक्रधरसिंह के बचपन में ही आ गए थे। इतना ही नहीं, जमाल खां, सादिक हुसैन (तबला), चाँद खां (सारंगी) करामतुल्ला, कादरबख्स, अनोखेलाल, प्यारेलाल, प्यारे साहब (गायन), ठाकुरदास महंत, पर्वतदास (पखावज) आदि संगीतज्ञ भी राजा भूपदेवसिंह के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। कहा जाता है कि शिवनारायण के नृत्य से राजा चक्रधरसिंह अत्यधिक प्रभावित हुए थे। और शासन की बागडोर सम्हालते ही उन्होंने अपना सारा ध्यान कथक और संगीत के विकास में केन्द्रित किया।
उन्होंने पं. जयलाल, अच्छन महाराज, शिवलाल, सुखदेवप्रसाद, सुंदरलाल, चिरंजीलाल, हनुमान प्रसाद, झंडे खां, लच्छू महाराज, शंभू महाराज, सीताराम, ज्योतिराम, मोतीराम आदि श्रेष्ठ आचार्यों को नियुक्त कर अपने दरबार के बाल-कलाकारों को, जिनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल प्रमुख थे, नृत्य की शिक्षा दिलाई। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने हमजोली अनुजराम और मुकुतराम को भी पुनः नृत्य की शिक्षा दिलाई। अंत मे उन्होंने स्वयं कार्तिक और पं. जयलाल के साथ रामलाल को नृत्य की शिक्षा दी। गुणी राजा के दरबार में उपयुक्त प्रसिद्ध नृत्याचार्यों के अतिरिक्त इनायत खां (सितार), अहमदजान थिरकवा, मुनीर खां, नन्हेबाबू, हाजी मुहम्मद, अलाउद्दीन खां, कादरबख्श, कंठे महाराज, कवि भूषण और ठा. लक्ष्मणसिंह आदि प्रसिद्ध संगीतज्ञ उनके दरबार के रत्न थे। नत्थूलाल, मुनीर खां और चुन्नीलाल तो अंत तक दरबार में ही रहे और निधन भी उनका यहीं हुआ।
कहा जाता है, पंडित ओंकारनाथ और विष्णुदिगंबर-जैसे युग-प्रवर्तक संगीतज्ञों की कृपा राजा साहब पर थी और उनके निमंत्रण पर वे दोनों ही आते थे। प्रश्न यह उठता है कि बीसवीं सदी के इन महान् कलाकारों का इस पिछड़े इलाके में आने के पीछे कौन-सा रहस्य था। कारण,य ह रियासत न तो श्रीसंपन्नता के लिए ही प्रसिद्ध थी और न यहाँ आने-जाने की पर्याप्त सुविधा थी। विचार करने पर ज्ञात होगा कि राजा चक्रधरसिंह एक महान् गुणी राजा और जन्मजात कलाकार थे। उनका दरबार संगीत और साहित्य के लिए अत्यंत उर्वर था। राजा साहब के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करना यानी सर्टीफाइड हो जाना था ।
देश के किसी भी हिस्से मे होनेवाला संगीत-सम्मेलन यहाँ के कलाकारों के बिना सूना लगता था। इन्ही बातों से रायगढ़-दरबार के महत्व की कल्पना की जा सकती है।
दूसरा कारण जो अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है, वह यह कि रायगढ़-दरबार में नृत्य-विषयक ‘नर्तन रहस्यम्’ नाम का एक प्राचीन ग्रंथ था, जिसका प्रणेता पं. विशाखदत्त नाम का कोई विद्वान था । हो सकता है, देश के पुराने नृत्याचार्यों को उसका पता रहा हो। कारण पं. विशाखदत्त ने मुगल-दरबार से प्राणों के रक्षार्थ भागकर इस बीहड़ वन-प्रदेश में शरण ली थी। यहीं दियागढ़ नामक रियासत में उसने दो राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी थी। राजकुमारियों का मीलूगढ़ में विवाह होने पर पं. विशाखदत्त को भी उनके साथ वहाँ जाना पड़ा। वहीं उन्होंने ‘नर्तन रहस्यम्’ का निर्माण किया । मीलूगढ़ से युद्ध के दौरान यह ग्रंथ रायगढ़-नरेशों के हाथ लगा। ‘नर्तन-रहस्यम्’ के आधार पर राजा चक्रधर ने ‘नर्तन-सर्वस्वम्’की रचना की। ‘नर्तन-रहस्यम्’ अब अनुपलब्ध है। ‘नर्तन-सर्वस्वम्’ की भूमिका में ‘नर्तन-रहस्यम्’ की कथा का स्पष्ट उल्लेख है।
रायगढ़-दरबार की सांस्कृतिक चेतना को और उजागर करने के लिए यहाँ दो बातों को और स्पष्ट कर देना आवश्यक है। प्रथम तो राजा चक्रधरसिंह को संगीत के मूल संस्कार विरासत-बतौर मिले थे। उनके पितामह घनश्यामसिंह, पिता श्री भूपदेवसिंह, अग्रज नटवरसिंह आदि शासक संगीत के संरक्षक ही नहीं, बल्कि मर्मज्ञ भी थे। राजा चक्रधरसिंह के छोटे चाचा पीलूलाल ने तबले की शिक्षा बनारस जाकर ली थी। उनके मझले चाचा लाल नारायणसिंह पखावज के श्रेष्ठ वादक थे।
संगीत की वास्तविक प्रेरणा राजा साहब को उन्हीं से मिली थी। ये शासक गोड़ जाति के हैं। गोड़ मध्यप्रदेश की आदिम जन-जाति है। नाच और गान इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। संगीत का संबंध उनके धार्मिक अनुष्ठानों से ही नहीं, बल्कि सीधे रक्त से है । उनके जीवन के प्रत्येक स्पंदनों में नृत्य की लय और मृदंग के छापों की अनुगूंज है। हो सकता है, इन गोड़ राजाओं ने अपनी स्वाभाविक प्रवृति का परिष्कार अंचल के लोग-नर्तकों को शास्त्रीय नृत्य में दीक्षित कर किया हो । एक बात और, राजा चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ था। उनका जन्म-दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। एक प्रकार से वह धार्मिक उस्सव राजकीय उत्सव के रुप में परिणत हो गया था। इस उत्सव में देश के प्रख्यात कलाकारों के अतिरिक्त स्थानीय कलाकारों को भी प्रोत्साहित किया जाता था। उसी समय कर्मा और नाचा से बाल-कलाकारों का चुनाव कर, उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया जाता था। एक फिरतू को छोड़कर कथक के सभी नृत्याचार्य, जिनमें कार्तिक, कल्याण और बर्मन प्रमुख हैं, छत्तीसगढ़ी नाचा से आए थे। अतः अभिजात्य संस्कारों से जुड़े कथक में लोक-नृत्य का लालित्य, उद्दाम आवेग और जीवन का निश्च्छल स्पंदन दीख पड़े तो क्या आश्चर्य ? ऐसा मेल शायद ही कहीं हुआ हो ।
राजा भूपदेवसिंह के समय मोहरसाय, धुरमीनदास और सहसराम को पहले-पहल कथक की शिक्षा देने का उपक्रम हुआ । पं। चुन्नीलाल, शिवनारायण और झंडे खां इनके गुरु नियुक्त हुए । कार्तिकराम के चाचा माखनलाल और अनुज के पिता जगदेव माली उस समय इस क्षेत्र के प्रसिद्ध लोक-नर्तक थे। राजा भूपदेवसिंह की इन पर विशेष कृपा थी। इन्होंने भी कार्तिकराम और अनुजराम के लिए ज़मीन तैयार की। राजा नटवसिंह के समय अनुजराम, कुकुतराम और कार्तिक आदि कलाकारों को पं. शिवनारायण, पं. जयलाल, सीताराम और झंड़े खां जैसे योग्य नृत्याचार्यों ने कथक की शिक्षा दी। राजा चक्रधरसिंह उस समय ‘नन्हे महाराज’ के नाम से पुकारे जाते थे। वे बचपन से ही संगीत और नृत्य के प्रति अनुरक्त थे। उन्होंने लालनारायणसिंह, ठा. लक्ष्मणसिंह और मुनीर खां से तबला की, पं. शिवनारायण और सीताराम से नृत्य की तथा नन्हेबाबू से गायन की शिक्षा ली ।
साहित्य के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी उनके पथ-प्रदर्शक रहे। इसके अतिरिक्त संस्कृत के विद्वान् श्री भगवान् पांडे, पं. सदाशिव और अनेक साहित्यिक उनके साथ रहे। राजा नटवरसिंह के देहांत के बाद राजा चक्रधरसिंह शासक हुए और शीघ्र ही रायगढ़ संगीत, नृत्य और काव्य का त्रिवेणी-संगम हो गया। उनके शासन काल में देश के महान कलाकारों का आगमन हुआ । उन्होंने संगीत की अन्य विधाओं की अपेक्षा कथक के विकास में ही अधिक जोर दिया। उन्होंने कार्तक, अनुजराम, कल्याण, फिरतू और बर्मन को उच्चकोटि की शिक्षा दिलाई।
पं।जयलाल इनके प्रमुख गुरु थे। इसके अलावा चिरंजीलाल, सोहनलाल, मोहनलाल आदि भी उनके आचार्य थे। नृत्य शिक्षा के समय राजा चक्रधरसिंह की मौलिक प्रतिभा के कलात्मक हस्तक्षेप ने पं. जयलाल को रुष्ट किया और वे बंबई चले गए । इस बीच राजा साहब ने अच्छन महाराज को रामपुर-दरबार से बुलवा लिया। फिर भी वे पं. जयलाल को नहीं भूल सके और बुलावा भेजा । चूंकि पं. जयलाल के पिता और बंधु-बांधव यहाँ रह चुके थे और उन्हें रायगढ़ से बेहद लगाव था। अस्तु, वे राजा साहब के आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सके । इस बीच पं. सुंदरलाल, हनुमानप्रसाद, पं. सुखदेव भी आ गये थे । सबसे बाद में शंभू महाराज और लच्छू महाराज आए । इस तरह रायगढ़ कथक का गढ़ ही बन गया । तभी तो पं. सुखदेव ने अपने पुत्र श्री चौबे को नृत्य की शिक्षा यहीं दिलाई । उस समय यहाँ जयकुमारी, हजारीलाल और गौरीशंकर आदि भी नृत्य का अभ्यास कर रहे थे।
पं। जयलाल और अच्छन महाराज के कारण अब दरबार में लखनऊ और जयपुर-घराने की खुली टकराहट होने लगी। वैसे, इसका सूत्रपात तो सन् 1895 ई. में ही हो गया था। पहले तो दोनों घराने के गुरुओं ने स्वस्थ स्पर्धा की भावना से अपनी-अपनी शैलियों में शिक्षा देना प्रारंभ किया । बाद में जब शिष्यों में दोनों शैलियों का सम्मिश्रण होने लगा, तो दोनों आचार्यों को अपने घराने की शैलियों की शुद्धता बनाए रखने की चिंता हुई । दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगे, एक-दूसरे की त्रुटियाँ निकालने में कटुताएं बढ़ीं और सन् 1936 ईं में एक दिन उग्र विवाद खड़ा हो गया । राजा साहब ने दोनों घरानों की श्रेष्ठता स्वीकार कर अपनी-अपनी शैलियों में ही शिष्यों को निष्णात करने का अनुरोध किया, तब जाकर यह विवाद समाप्त हुआ । किंतु इसके साथ ही रायगढ़-घराने का मौन प्रश्न खड़ा हो गया । आज तो उसके अस्तित्व का प्रश्न है। रायगढ़-दरबार के शिष्यों को दोनों परानों की शिक्षा लेनी पड़ती थी, ऊपर से राजा साहब की रचनाओं की भी तालीम दी जाती ।
राजा साहब प्रमुख आचार्य को अपने द्वारा आविष्कृत नृत्यांगों को प्रेक्टिकल-हेतु सभा-मध्य आमंत्रण देते, फिर स्वयं उसे करके दिखाते । इतना ही नहीं, गुरुओं को भी अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रकाशन का अवसर देते, तब भला शिष्यों में किस घराने की शुद्धता बनी रह सकती थी । धीरे-धीरे राजा साहब द्वारा आविष्कृत शैली ही यहाँ प्रमुख हो गई और दोनों घरानों का प्रभाव कम होता गया । एक बात यहाँ साफ हो जाए, वह यह कि अब भी बँधे-बँधाए तौर पर यहाँ के नर्तक दोनों शैलियों में नाचना चाहें, तो अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। परन्तु उसमे जीवन की स्वाभाविक गतिशीलता नहीं रहने पाएगी। अतः दोनों शैलियो का सम्मिश्रण, जो इस घरानें की प्रमुख विशेषता हैं, अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता ।
यह महज एक संजोग ही था कि पं। जयलाल और अच्छन महाराज संगीत, नृत्य और काव्य के इस उर्वर रसमय वातावरण में एक साथ अनेक वर्षों तक रहे। ऐसे में उनकी असाधारण कलाकारिता और राजा साहब की विलक्षण कारयित्री प्रतिभा प्रस्फुटित होकर एक-दूसरे को प्रभावित करती हो और उनसे एक निराली शैली का जन्म हुआ हो, तो क्या आश्चर्य ? इस शैली में जयपुर और लखनऊ-घरानें का सम्मिश्रण, राजा साहब की रचनाओं, मुद्राओं और अभिनय-पद्धति का आधिक्य तथा लोक-नृत्य का उद्दाम आवेग, जीवंतता और लालित्य एक साथ दिख पड़ें, तो यह उसकी खासियत है ।
इसी शैली का अनुसरण प्रायः सभी जगह किया गया। इसी निराली शैली का अनुसरण प्रायः सभी जगह किया गया । इसी निराली शैली में कार्तिक के पुत्र रामलाल को पं। जयलाल, राजा चक्रधर सिंह और कार्तिक ने निष्णात किया है। उस समय रायगढ़ दरबार के कलाकारों में जितनी तैयारी ती, उतनी ही भाव-प्रदर्शन की क्षमता, उतनी ही मौलिकता तथा लालित्य, यह पहचान अन्य जगह के कलाकारों में उस समय दुर्लभ थी, अब दूसरी बात है।
जारी..

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कथक का रायगढ़ घराना- भाग दो

कथक का रायगढ़ घराना- भाग दो


अंग्रेजों के शासनकाल में सांस्कृतिक संकट और अधिक गहराया, किंतु कला की अस्मिता के प्रति सचेत शासकों ने इस सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण दे कर इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें जयपुर-नरेश सवाई माधोसिंह, लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह और रायगढ़-नरेश चक्रधर सिंह का नाम प्रथम पंक्ति में है। वस्तुतः जयपुर और लखनऊ दरबार में कथक को संरक्षण तो मिला, उसमें अभिनव प्रयोग भी हुए, किंतु उसका पूर्ण विकास रायगढ़ दरबार में ही हुआ ।

प्राचीन आचार्यों की तरह राजा साहब संगीत को उसके चारों अंगों-गान, वाद्य, नृत्य तथा लास्य या भाव-प्रदर्शन समेत स्वीकार करते थे, क्योंकि वे स्वयं एक प्रतिभा संपन्न कवि, रंगकर्मी,नाट्य-लेखक, अपने युग के श्रेष्ठ तबला-वादक और जन्मजात नर्तक थे। अर्थात् वे संपूर्ण कलाकार थे और नृत्य कला में भी पूर्णता चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोगधर्मी कलाकार-मन से काव्य, अभिनय, नए परणों और तालों से कथक का पुनर्रचाव किया। प्रयोगधर्मी होते हुए भी वे कथक की ज़मीन से हटे नहीं, बल्कि मध्यकालीन कुहासे से निकालकर उसके मूल संस्कार लौटाए। राजा साहब विशुद्ध कला-पारखी थे । वे कला का संबंध आत्म-कल्याण के साथ ही जन-रुचि के परिष्कार से जोड़ते थे । उन्होंने नित-नवीन प्रयोगशील कथक को शास्त्रीय स्वरुप देना चाहा, उसे उसके मूल रुप से जोड़ते हुए युगानुरुप रचना चाहा।

इसके लिए उन्होंने दोनों घरानों के आचार्यों का सहयोग आवश्यक समझा और उन्हें दरबार में समाहित किया । उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक अपनी कला विकसित करने का उपयुक्त वातावरण भी दिया । उन्हें योग्य शिष्य दिए, जो उनकी कला को स्थायित्व दे सकें । इतना ही नहीं, उन्होंने स्वयं पर्याप्त समय दिया । तब कहीं कथक आज इतने गौरव का अधिकारी हो सका है । यह बात कितने लोगों को मालूम है।

रायगढ़-दरबार की महत्ता स्वीकार करते हुए ‘कथक-केन्द्र’, दिल्ली, मार्च 78 के वर्कशाप में पं. गौरीशंकर ने अपने आलेख में ठीक ही कहा है – "रायगढ़-दरबार में कथक नृत्य ने जो ऊँचे आयाम कायम किये थे, वे हमारे नृत्य-जगत के इतिहास में सदैव जीवित रहेंगे। हमारे देश में कथक जिस रुप में नाचा जाता है, उस पर रायगढ़ में प्रवर्तित उस विद्या की ही छाप है।" रायगढ़-घराने का औचित्य सिद्ध करने के लिए इन बातो का खुलासा जरुरी है ।
रायगढ़-घराना अस्तिव में कब आया, यह एक रोचक प्रसंग है। माधोसिंह के पूर्व राजस्थान में ‘सांवलदास’ के नाम से घराना चला आ रहा था; किंतु उनके समय में जयपुर कथक का गढ़ ही बन गया और नत्थूलाल, गिरधारी लाल, भानूलाल आदि ने अपने-अपने नाम पर घराने कायम कर लिए थे । इधर ईश्वरीप्रसाद के वंशज बिंदादिन ने, जो कि लखनऊ-दरबार में थे, अपने नाम का घराना स्थापित किया । इनकी देखा-देखी अनेक लोगों ने घराने कायम किए और इस नृत्य में मनमाने ढ़ग से प्रयोग करने लगे। इस मतभेद को दूर करने के उद्देश्य से माधोसिंह ने सन् 1895 ई। में विद्वानों की एक सभा बुलाई और वहाँ सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि ‘विशेष’ के बजाय ‘स्थान’ के नाम से घराने कायम किए जाएँ । इसी प्रकार लखनऊ और जयपुर-घराने का अस्तित्व सर्वप्रथम प्रकाश में आया ।

बाद में बनारसवालों ने भी, जो जयपुर से संबंधित थे, अपने घराने की बात कही, जो इसलिए जायज है कि उन्होंने भी स्वतंत्र शैली का निर्माण कर लिया है। बीसवीं सदी के आते-आते आपसी आदान-प्रदान के बाद भी जयपुर और लखनऊ घराने की शैलियों में प्रयोगधर्मिता के कारण पर्याप्त अंतर आ गया था। जयपुर के लोग शिव और काली के उपासक थे, उनके नृत्य में तांडव का आधिक्य था। बाद में उन्होंने महाप्रभु बल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित रास का भी प्रभाव ग्रहण किया, मीरा के भजन के साथ सूर के पदों का भी समावेश नृत्य में हुआ ।

राजस्थान के कलाकार प्रारंभ से ही अभिनय दर्पण का अनुगमन करते थे और उन्होंने अष्टनायिका-भेद को भी नृत्य में स्वीकार कर लिया था। वहाँ के तोड़े, टुकड़े, आमद और पद-संचालन की शिक्षा लयकारी मे दी जाती थी। जयपुर-घराने में भानूजी, चुन्नीलाल, जानकीप्रसाद, शिवनारायण, सुखदेवप्रसाद, चिरंजीव, जयलाल और सुंदरलाल कथक के श्रेष्ठ आचार्य हुए ।
लखनऊ-घराने का कथक नृत्य पहले विशुद्ध नटवरी नृत्य था, उसमें राधा कृष्णलास्य ही प्रधान था। वह वैष्णव महाभाव से ओत-प्रोत था, उसमें भाव-प्रदर्शन की प्रधानता थी। बाद में मुगल दरबारों में आकर, जिनका कि प्रमुख केन्द्र लखनऊ था, कथक पर मुगलिया रंग चढ़ गया और वेश-भूषा ईरानी हो गई । कथकों का सारा ध्यान नाज़ और नज़ाकत व बुलबुलों को चहकाने पर गया। जाम, पैमाने और साकी नृत्य के उपकरण बन गए । वैष्णव-पदों का स्थान ठुमरी और ग़ज़लों ने ले लिया । पारिभाषिक शब्द भी बदले। प्रस्तुत के बदले ‘अदा’ आगमन की जगह ‘साकी’ तथा कृष्ण की जगह ‘बादशाह’ ने ली। दो संस्कृतियों की टकराहट के बीच भी श्रेष्ठ आचार्यों की सर्जना-शक्ति ने कथक की आत्मा को सुरक्षित रखा।

इतना ही नहीं, उसे नई मुद्राओं, नए परणों और सात्विकता से श्रीसंपन्न कर लोकप्रिय भी बनाया । लखनऊ-घराने में ठाकुर प्रसाद, बिंदादीन, कालिका प्रसाद, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज श्रेष्ठ कथकाचार्य हुए । इस तरह कथक के विकास में करीब सौ वर्षों का समय लगा, तब भी उसका शास्त्रीय स्वरुप निर्मित न हो सका और न ही इसपर कोई महत्वपूर्ण प्रामाणिक शास्त्र ही रचा जा सका। इस अभाव की पूर्ति राजा चक्रधर सिंह ने की।

जारी...

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Saturday, May 3, 2008

कथक का रायगढ़ घराना

कथक का रायगढ़ घराना
सृजन गाथा के दिसम्बर २००६ के अंक में डा बलदेव ने एक लेख लिखा था। यहाँ प्रस्तुत है हू बी हू लेख।

कथक को उसके मूल संस्कार और नए जीवन-संदर्भों से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है । रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने-फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू, बर्मन और रामलाल-जैसे श्रेष्ठ कथक को फलने-फूलने का यथेष्ट अवसर निला ।
रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू, बर्मन और रामलाल-जैसे श्रेष्ठ कथकाचार्य तैयार हुए । उनकी अपनी विशिष्ट शैली है और उसी शैली में एक लंबे अरसे से वे अपने शिष्यों को तैयार कर रहे हैं । शैली-विशेष के अर्थ में "कथक और रायगढ़-घराना" पर बहस की शुरुआत उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से की जा सकती है ।
प्राचीन काल में शास्त्रीय नृत्य के नाम से प्रचलित कथक की अत्यंत समृद्ध परंपरा विदेशी आक्रमणकारियों के कारण अन्य कलाओं की तरह अपनी पहचान खोने लगी थी। हिंदू राज्यों के विघटन के समय मंदिरों में आश्रय पा रहे कथकों में कतिपय दोष आ गए, फलतः उन्हें समाज-बहिष्कृत होना पड़ा। ‘विद्यावनत’ और प्रियंवद’ कहे जानेवाले इन कलाकारों को यायावरी जीवन व्यतीत करने को मजबूर होना पड़ा ।
आगे चलकर मुगल-दरबारों में इस नृत्य-विद्या को संरक्षण तो मिला, किंतु उसका धार्मिक चरित्र सुरक्षित न रह सका । पहले कथक हिंदुओं का धार्मिक अनुष्ठान होने के कारण पूर्णतया सात्विक था। अब उसे ईरानी लिबास के साथ दरबारी तौर-तरीके अपनाने पड़े । क्योंकि पैमाने और तत्कार के संतुलन में ही नर्तकों की खैरियत थी। इस तरह मंदिरों का कथक रोटी की तलाश में अपनी प्राचीन परंपरा से कट गया और मनोरंजन का साधक बन गया ।
इस समय नृत्य और भाँड़ों के तमाशे में कोई विशेएष अंतर नहीं समझा जाता था। मुगलकालीन चित्र इस तथ्य के साक्ष्य हैं। यदि इन चित्रों को मोहनजोदड़ों और हड़प्पा से उत्खनित स्त्री-नृत्य मुद्राओं के सामने रखें, जो कि निश्चित रुप से कथक की ही है, तो दोनों के बीच तारतम्य खोजना मुश्किल होगा।
संस्कृति के संक्रमणकाल में दरबार के बाहर तत्वकार पंडितों और सौभाग्यवती वनिताओं ने ही उसे मूल रुप से सुरक्षित रखने के प्रयत्न किए । कला के प्रति समर्पित स्वाभिमानी पंडितों ने विषम परिस्थियों में भी उसे धर्म से जोड़े रखा। इन्हीं पंडितों से जयपुर-निवासी भानूजी और हंडिया-निवासी ईश्वर प्रसाद मिश्र प्रमुख थे। उन्हीं के वंशधर और शिष्यों ने कला के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए राज्याश्रय को आवश्यक समझा और अनेक दरबारों में, जिनमें जयपुर और लखनऊ प्रमुख थे, आश्रय प्राप्त किया। इन्ही दो घरानों के प्रयत्नों से कथक देश-विदेश में विकसित हुआ।
जारी...

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